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मुझे मिला है शरीर - क्या करूँ मैं उसका?
उस इतने साबूत और इतने मेरे अपने आपका?
साँस लेने और जीने की खुशियों के लिए
किसे कहूँ मैं शब्द धन्यवाद के?
मैं ही फूल हूँ और मैं ही उसे सींचने वाला
अकेला नहीं मैं संसार की काल कोठरी में।
काल की अनंतता के काँच पर
यह मेरी गरमी है और यह मेरी साँस।
उभर आती है उस पर ऐसी बेलबूटी
तय करना मुश्किल कि असल में वह है क्या?
धुल जायेगी आज के इस क्षण की मैल
पर मिटेगी नहीं यह सुंदर बेलबूटी।
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